गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
सुधन्वा
‘अहा! मेरा बड़ा सौभाग्य है, आज इसी बहाने साकाररूपसे प्रकट सच्चिदानन्दघन परमात्मा पार्थ-सारथि त्रिभुवन-मोहन भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन कर नेत्रोंको सफल करूंगा। सुना है। उनका सौन्दर्य अतुलनीय है, उनके चरित्र विचित्र हैं, इन अभागी आँखोंने प्रभुके चारु चरणोंका दर्शन आजतक नहीं किया, वृद्धावस्था आ गयी। आज रणाङ्गणमें उनके चरण-दर्शन कर जन्म-जीवनको सार्थक करूंगा।' चम्पकपुरीके भक्त राजा हंसध्वजने ऐसा मनोरथ करते हुए सेनापतिको आज्ञा दी-
न मया वीक्षितः कृष्णो वृद्धेनापि स्वचक्षुषा।
तस्मान्निर्यान्तु मे वीरा युद्धार्थं याम्यहं रणम्॥
‘मैं वृद्धावस्थाको प्राप्त होकर भी अबतक अपनी आँखों से श्रीकृष्णके दर्शन नहीं कर पाया हूँ, अतएव मेरे सारे वीर युद्धार्थ यात्रा करें, मैं भी रणक्षेत्रमें चलता हूँ।
पाण्डवोंके अश्वमेध-यज्ञका घोड़ा चम्पकपुरीके पास पहुँच गया। महावीर अर्जुन दिव्य शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर प्रद्युम्नादि वीरोंसहित अश्वकी रक्षाके लिये पीछे-पीछे चले आ रहे हैं। राजा हंसध्वजने दूतोंसे इस सुसंवादको सुनकर क्षत्रिय-धर्मके अनुसार रणकी तैयारी की और साथ ही एक अनुगत भक्तके आते पार्थ-सारथि भगवान्के दर्शनकी प्रबल भावनासे रणक्षेत्रकी ओर प्रयाण किया।
राजा हंसध्वज बड़े ही धर्मात्मा, प्रजापालक, शूरवीर और भगवद्भक्त थे। उनके राज्यमें एक विशेषता यह थी कि राजघरानेके पुरुषोंसहित प्रजाके सभी पुरुष एकपत्नी-व्रतका पालन करनेवाले थे तथा देशके सभी नर-नारी भगवान्के परम भक्त थे। राज्यमें नौकरीके लिये बाहरसे कोई आदमी आता तो राजा सबसे पहले उससे कहते थे-
एकपत्नीव्रतं तात यदि ते विद्यतेऽनघ।
ततस्त्वां धारयिष्यामि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते॥
न शौर्यं न कुलीनत्वं न च क्वापि पराक्रमः।
स्वदाररसिकं वीरं विष्णुभक्तिसमन्वितम् ॥
वासयामि गृहे राष्ट्रे तथान्येऽपि हि सैनिकाः।
अनङ्गवेगं स्वान्ते ये धारयन्ति महाबलाः॥
‘हे निष्पाप! तुम यदि एकपत्नीव्रतका पालन करनेवाले हो तो मैं तुम्हें रख सकता हूँ। भाई! मैं सत्य कहता हूँ कि निकम्मी शूरता, कुलीनता और पराक्रम मैं नहीं चाहता। जो वीर केवल अपनी एक ही पत्नीमें प्रेम करनेवाला और भगवान्की भक्तिसे सम्पन्न होगा, मैं उसीको अपने घर तथा राष्ट्रमें स्थान दे सकता हूँ। जो कामदेवके प्रबल वेगको धारण करते हैं, वे ही वास्तवमें महाबली हैं।
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